वैदिक कालीन समाज

 वैदिक कालीन समाज (Vedic Society)

➪ आर्यों का मूल घर
➪ आर्य संस्कृति की विशेषताएं
➪ वैदिक ग्रंथ और उपनिषद
➪ वैदिक कालीन समाज और संस्कृत के पुनर्निर्माण के स्रोत
➪ ऋग्वैदिक काल की भौगोलिक स्थिति और उत्तर वैदिक काल की भौगोलिक स्थिति
➪ आर्थिक स्थिति
➪ राजनीतिक संगठन और राजशाही का विकास
➪ सामाजिक संगठन और वर्ण व्यवस्था
➪ धर्म और विचार



आर्यों का मूल घर :-

 विद्वानों ने आर्यों के मूल निवास स्थान के संदर्भ में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये हैं। वे इसमें आर्कटिक क्षेत्र, यूरोप, मध्य एशिया और दक्षिणी रूस को समाहित करते हैं। आर्यों की उत्पत्ति से जुड़ी ये मान्यताएँ आर्य संस्कृति से संबंधित साक्ष्यों के अध्ययन के आधार पर निर्मित की गई हैं।

आर्यों की उत्पत्ति से जुड़ी विभिन्न अवधारणाओं के पक्ष-विपक्ष का वर्णन निम्नलिखित रूपों में वर्णित है-

बाल गंगाधर तिलक ने खगोलीय गणनाओं के आधार पर आर्यों का आगमन आर्कटिक क्षेत्र से होना बताया है। तिलक की मान्यता ऋग्वेद में एक सूक्त के अंतर्गत दीर्घकालीन उषा की स्तुति पर आधारित होने के कारण मान्य नहीं है।

गाइल्स विभिन्न भारोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर आर्यों का मूल निवास हंगरी मानते हैं। क्योंकि इनकी मान्यता से जुड़ी विशेषताएँ अन्य स्थानों पर भी मिलती हैं इसलिये यह मान्य नहीं है।

आर्य संस्कृति की पहचान में घोड़े का बहुत ऊँचा स्थान था लेकिन अश्व पालन का प्राचीनतम साक्ष्य भारतीय महादेश से काफी दूर मिलता है। पुरातत्त्व के अनुसार घोड़े का उल्लेख सबसे पहले 6000 ई.पू. यूराल में मिलता है। इससे आर्य उत्पत्ति की दक्षिणी रूस से इतर सिद्धांतों पर प्रश्नचिह्न लगता है।

हालाँकि, दक्षिणी रूस का सिद्धांत अधिक संभावित प्रतीत होता है और इसे इतिहासकारों द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार भी किया जाता है। मध्य एशिया से आर्यों के प्रसारण की पुष्टि जीव विज्ञानियों के शोध से भी होती है। आर्यों ने लगभग 1500 बीसी में भारत में प्रवेश किया और इन्हें हिन्द-आर्य के रूप में जाना गया। अत: आर्यों के भारत के मूल निवासी होने की मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती है।


आर्य संस्कृति की विशेषताएं :-

आर्य संस्कृति की मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित है।

आर्य समाज के लोगों ने ई० पू० 2300 में कोकेशिया क्षेत्र में पहली बार स्पोक पहिये की शुरूआत किया।

इस समाज के लोगों को कृषि का बेहतर ज्ञान था। वे बुवाई, कटाई, छटाई से परिचित थे। और विभिन्न मौसमों के बारे में जानते थे।

इस समाज में महिलायें भी अपने पति के साथ सभा में भाग लेती थी। और बली चढ़ाती थी।

आर्य समाज में विवाह प्रथा स्थापित हुई थी। और बाल-विवाह का कोई प्रदान नहीं है। ऋग्वेद में विवाह योग्य आयु 16 से 17 बताई गयी है।

इस समाज में जनजातीय तत्व मजबूत थे। और कर-संचय या भूमि -सम्पत्ति संचय के आधार पर सामाजिक विभाजन का अस्तिव नही था। इसलिए समाज अभी तक जनजातीय और सममतावादी था।

आर्य समाज के लोग प्राकृतिक शक्तियों को आदर्श मानते थे।

उत्तर वैदिक काल मे आर्यों ने मिट्टी के बर्तन का प्रयोग किया जो भूखे रंगों में रंगे होते थे।

आर्यों ने ही लौह धातु खोजा था। जिसे अयस्क कहा जाता था।

आर्यों का समाज पितृ प्रधान था।

गोत्र नामक संस्था आर्य समाज से जन्मा वैदिक काल में आया।

वैदिक ग्रंथ और उपनिषद :-

 उत्तर वैदिक काल का इतिहास और वैदिक कालीन समाज का इतिहास वैदिक ग्रंथ पर आधारित है। ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना ग्रंथ है। जिसके आधार पर प्रारम्भिक वैदिक काल का वर्णन किया गया है। उत्तर वैदिक काल में दो और संहिता जुड़े जिन्हें यजुर्वेद और ‌अधर्ववेद संहिता के नाम से जाना गया। यजुर्वेद में श्लोक और उनको पढ़ने (अनुष्ठान) का तरिका भी बताया गया है। और अथर्व वेद में बधाओं और बुराईयो को दूर करने वाले मंत्र है। वैदिक संहिता के बाद कई खण्डों में रचित ब्राह्मण ग्रंथ आते हैं।

वैदिक कालीन समाज :-

ऋग्वैदिक कालीन समाज:-

 ऋग्वैदिक काल एक प्रकार के कबिलाई पद्धति पर आधारित था। इसलिए परवर्ती काल की तुलना में इस काल में समता का भाव अधिक प्रबल रहा।

ऋग्वैदिक समाज एक पितृ सत्तात्मक समाज था इसलिए पुरुषों का दर्जा ऊंचा था। फिर भी महिलाओं की स्थिति सामान्य थी। महिलाये अपने पति के साथ यज्ञ में भाग ले सकती थी । जबकी पिता के साथ पुत्र ही भाग ले सकता था।

ऋग्वेद में बहुपतित्ववाद तथा रक्त संबंध में विवाह का संकेत मिलता है। बताया जाता है कि सूर्य की पुत्री सूर्या दो अश्वनी भाईयो के साथ रहती थी। इसी प्रकार द्रोपदी की कथा भी बहुपतित्व की ओर संकेत करती है। तथा रक्त संबंध में विवाह की ओर संकेत यम एवं यमी की कथा मे मिलता है। ऋग्वेद में हमे दास एवं दासियों का भी जिक्र मिलता है। ये लोग युद्ध में बंदी होते थे।

उत्तर वैदिक कालीन समाज :-

 इस काल में आते - आते काबिलाई संरचना टूटने लगी एवं वर्ण विभाजित समाज अस्तित्व में आया। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के प्रथम पुरुष सूक्ति मे पहली बार 4 वर्ण का वर्णन मिलता है। यथा ब्रह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र।

साथ इस काल में तुलनात्मक रूप में महिलाओं की सामाजिक

स्थिति को गिरावट आयी। इस काल के आते - आते परिवार के मुखिया की स्थिति और भी मजबूत हुयी। वह परिवार के अन्य सदस्यों को पैतृक संपत्ति से बंचित कर सकता था। 

उदाहरण के लिए विश्वामित्र ने अपने 30 पुत्रों को घर से निकाल दिया था।

उत्तरवैदिक काल में समाज का एक विशिष्ट लक्षण बन गया।

आश्रम व्यवस्था का विकास एक आर्य के जीवन को 4 आश्रमों मे बाँटा गया यथा - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास तथा चारों आश्रमों में से उत्तर वैदिक काल तक तीन ही आश्रम स्थापित हो चौधा आश्रम संन्यास बुद्ध काल में विकसित हुआ।

ऋग्वैदिक काल की भौगोलिक स्थिति:-

ऋवेद में 42 नदियों का जिक्र है इनमें 19 नदियों का स्पष्ट विवरण है। और इन नदियों के आधार यह प्रसार की सूचना निम्नलिखित है।

पश्चिम से सिंधु की सहायक नदियाँ :-

 (कुर्रम) क्रुमु, शुषया (सोहन), गोमल (गोमती), कुंभा (काबुल) पूर्वी अफगानिस्तान

पूरब में सिंधु की सह‌ायक नदियों :-

 वितस्ता (झेलम), आसकनी (चेनाब), परुष्णवी (रावी), बिपाशा (व्यास) तथा शतद्रु (सतलज) , सिंध एवं पंजाब 

सरस्वती दृषद्वती तथा अपाया - राजस्थान एवं हरियाणा में ऋग्वैदिक आर्यों का विस्तार था।

उत्तरवैदिक काल की भौगोलिक स्थिति:-

 इसकी सूचना उत्तर वैदिक ग्रंथ से एवं कुछ हद तक इसकी पुष्ट लौह युक्त चित्रित घूंसर मृदभांड स्थलों से ।

एतरेय ब्राह्ममण :

 उत्तर वैदिक ग्रंथ में ऋग्वेद के गंगा-यमुना के ऊपरी दोआब को पूर्वी एवं दक्षिणी क्षेत्र को उत्तरवैदिक काल मे मध्यदेश कहा गया।

शतपथ ब्राह्मण: पूरब की ओर
कौशल राज्य : सरयू के किनारे स्थापित

आर्थिक स्थिति :-

वैदिक काल की आर्थिक स्थिति :-

 यह मुख्यतः पशुचारण पर निर्भर थे। उदाहरण के लिए पशु चारण से संबंधित ऋगवेद से अनेक शब्दावलियों का प्रयोग मिलता है। परन्तु कृषि का महत्व था। यद्यपि कृषि द्वितीयक पेशा थी। ऋग्वेद में बीजों की बुवाई, सिचाई और कटाई आदि गतिविधियों का विवरण प्राप्त होता है। ऋग्वेद में यव (जौ) अथवा (धान्य) धान की चर्चा मिलती है।

इस काल में कुछ शिल्प गति विधियों का विवरण मिलता है।

यथा - चमड़े का काम, रथ निर्माण, ताबे ,कांसे के बर्तन का निर्माण। सुवर्ण एवं अयस की चर्चा है। बुनाई भी इसमें शामिल थी। इसमें व्यापार की भूमिका सीमित थी। अर्थव्यवस्था मुख्यतः उपहार वितरण प्रणाली पर कार्य करती थीं।

उत्तर वैदिक काल :-

उत्तर वैदिक काल में व्यापार की भूमिका बढ़ गयी। उदाहरण के लिए उत्तर वैदिक ग्रंथो मे का संघ एवं श्रेष्ठि जैसे शब्द का विवरण है।हालांकि नियमित सिक्के विकसित नहीं हुए।

उत्तर वैदिक काल के शतपय ग्रंथ में जनक को स्वयं हाथ से पकड़ कर जुताई करते हुए दिखाया गया है।

राजनैतिक संगठन और राजशाही का विकास:-

ऋग्वैदिक काल की राजनैतिक संगठन और राजशाही का विकास:-

राज्य जन आधारित था। क्षेत्र आधारित नहीं अर्थात ऋग्वैदिक राजनीतिक संरचना जनजातीय पद्धति पर आधारित थी। लोग अर्द्धखाना बदोश जीवन बिताते थे। राजा की स्थिति स्पष्ट नहीं थी। ऋग्वैदिक काल में कर प्रणाली स्पष्ट नहीं है। एक बलि' नामक कर प्रणाली का विवरण प्राप्त होता है। इसे कर नहीं बल्कि स्वैच्छिक भेंट कहते हैं।

राजा के दायित्व सीमित थे। अत: अधिकारियों की संख्या भी सीमित यथा- पुरोहित, युवराज, वज्रपति (चारागाह का प्रधान), सैनानी, ग्रामणी, विशपति, पुरुष (दुर्ग का प्रधान) आदि

ऋग्वैदिक काल में स्थायी सेना का विकास नहीं था बल्कि कबीले के लोग ही सैनिक सेवा प्रदान करते है। इसी प्रकार ऋग्वैदिक काल में रक्त सम्बन्ध से पृथक व्यवसायिक नौकरशाही का विकास नहीं हुआ।

 उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक संगठन और राजशाही का विकास:

इस काल में जनजातीय संरचना विखरने लगी एवं क्षेत्र पर आधारिक राजनीतिक व्यवस्था का विकास हुआ, अर्थात अब लोग स्थायी जीवन जीने लगे थे।

राजा की स्थिति इस काल मे अधिक स्पष्ट हो गयी अब इसे सर्व जनीय सर्वभूमियत एकराट कहा गया। और इसी के साथ कुछ महत्वपूर्ण यज्ञ भी प्रारम्भ होने लगे।

जैसे- अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ, राजसूय यज्ञ।

इस काल में बलि अनिवार्य हो गया। इसके अतिरिक्त शुल्क (चुंगी) जैसा भी कर भी लिया जाने लगा।

इस काल मे राज्य का आकार भी बड़ा हो गया। इसलिए जनजातीय संस्थाओं का महत्व खत्म हो गया। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल ही रही पर बड़ी इकाई जनपद बन गयी।

क्रमशः 

कुल < ग्राम< विश < जनपद


ऋग्वैदिक कालीन धर्म और विचार :-

इस काल के सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में इन्द्र, अग्नि एवं वरुण का वर्णन मिलता है। इन्द्र युद्ध एवं वर्षा के देवता के रूप में थे। इस काल मे आर्य युद्ध को ज्यादा महत्व देते थे इसलिए इन्द्र का ऊपर आना स्वभाविक था। दूसरे प्रमुख देवता के रूप में अग्नि एवं आगे वरुण देवता आते हैं।

 ऋग्वैदिक काल के धर्म में कुछ देवियों का भी जिक्र मिलता है। यथा- उषा, निशा, अरणयी, रात्री आदि परन्तु इनका स्थान देवताओं की अपेक्षा नीचे था।

ऋग्वैदिक धर्म का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति करना था। ऋग्वैदिक कालीन धर्म का स्वरूप मानवतावादी था।

उत्तरवैदिक कालीन धर्म और विचार:-

इस काल में वैदिक आर्य स्थायी जीवन जीने लगे थे। इसलिए उनके जीवन की प्राथमिकता बदल गयी थी। इस काल मे भी कुछ देवियों की चर्चा मिलती है जैसे- इन्द्राणी

उत्तरवैदिक धर्म का स्वरूप भी बहुदेववादी था, परन्तु क्रमिक रूप में वह भी एकेश्वरवादी की ओर बढ़ता चलता गया फिर उत्तर वैदिक काल के अंत तक अद्वैतवाद की अवधारणा आयी। उत्तर वैदिक काल के धर्म का भी उद्देश्य भौतिक सुखों को ही प्राप्त करना था। और उत्तरवैदिक कालीन धर्म का स्वरूप भी मानववादी विकसित हुई।

इस काल मे न केवल यज्ञ का प्रचलन बढ़ गया। बल्कि यश में मंत्रोच्चारण एक पशुबली को ही विशेष महत्व प्राप्त हो गया। इस प्रकार वैदिक धर्म कर्मकाण्ड प्रधान बन गया।


✯ वैदिक कालीन समाज, एक प्राचीन समाज था जो वैदिक काल के दौरान भारत में अस्तित्व में था। इस समाज की संरचना वर्ण व्यवस्था के आधार पर की गई थी, जिसने लोगों को चार मुख्य श्रेणियों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया था। समाज के भीतर प्रत्येक वर्ण के अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ थीं। आर्यकालीन समाज ने धर्म और संस्कृति पर बहुत जोर दिया, और यह आध्यात्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों में गहराई से निहित था। यज्ञ (बलि), पूजा (पूजा), धन-धर्म (दान), और अध्ययन (अध्ययन) समाज की धार्मिक गतिविधियों के अभिन्न अंग थे।

धार्मिक प्रथाओं के अलावा, आर्यकालीन समाज शिक्षा, विज्ञान, कला और वाणिज्य को भी महत्व देता था। समाज शिक्षा और ज्ञान को बहुत महत्व देता था, और शिक्षा गुरुकुलों में प्रदान की जाती थी जहाँ छात्रों को वेद, उपनिषद, दर्शन, व्याकरण, चिकित्सा, ज्योतिष और राजनीति विज्ञान जैसे विभिन्न विषय पढ़ाए जाते थे। समाज ने खगोल विज्ञान, गणित और साहित्य जैसे क्षेत्रों में ज्ञान की खोज को भी प्रोत्साहित किया।

वैदिक कालीन समाज के लोग मुख्य रूप से कृषि और पशुपालन में लगे हुए थे। वे गायों, घोड़ों, धन और भूमि का आदर करते थे और उनकी रक्षा और पालन-पोषण में बहुत सावधानी बरतते थे। समाज में शासन और प्रशासन की एक सुव्यवस्थित प्रणाली भी थी, जिसमें क्षत्रिय कानून और व्यवस्था बनाए रखने और लोगों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे।

कुल मिलाकर, वैदिककालीन समाज एक जटिल और उच्च संगठित समाज था जो आध्यात्मिकता, शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर बहुत जोर देता था। इसने प्राचीन भारत के सांस्कृ

तिक और बौद्धिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


Thank you…..



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